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ढूँढ़त फिरत बाहर तो क्यों तेरे नैना?
दिल जो सुख चाहत है, बाहर वह नही मिलत है।
दिल जो चाहत है, वह जब पावत है, तब सुख आवत है।
जब वह नही मिलत है, हो के निराश वह दुःख में डूबत है।
मन तो बाहर फिरत है, वह आस तो दिल में बढ़ावत है।
आस बढ़त जावत है, वह दुःख को दावत देवत है।
मन नचावत रहत है, काबू में वह जल्दी नही आवत है।
जीवन में आस जब कम रहत है, सुख के नजदीक वह पहुँचत है।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)